Saturday, April 19, 2008

कत' विदा भेलौं?

मोन भेल कने घुइम के आबी। कपड़ा- लत्ता पहिरते रही कि रजुआ दौरल एल .... संग जाई के रट-रट लागल। कियेक ने, घूमे ले ल जेबई त लामंचुस भेटतै, आ भाग रहले त सिंघारा सेहो । चल तखन, जल्दी से तैयार भ जो, कहि हम्हु केश फेर लगलौं।

२ मिनट में सामने ठार छल हाथ में झोरा लेने आ एकटा पुर्जी। ऐना बुझाइल जे एत्तेक काल से अहि हेतु षड्यंत्र रचल जा रहल छल भानस में। बटुआ खोलि पाई गिन लगलौं। आई उधारी ने लेल जेत । कतेक दिन मुंह नुकबैत रह्बई रामजी स', काल्हिये ओकर नौकर न-नुकर करैत छल। आई फेरो ई पुर्जी। नई आई नई। कतेक खपत छै अई घरक। आ एत्तेक पाहून-परख, कोन काज छै एतेक सामाजिकता देखबई के। अहि सब तारतम्य में रही कि रजुआ के छिट्किनी खोलैत देखलों। बेचारा से नई खुजलईत चिचिये लागल। कने काल ले सबटा चिंता बिसरा गेल। पनबट्टी ल विदा भेलौं पुब दिस। रजुआ लुटकुनिया बनल पाछू-२ आब लागल।

(क्रमशः)

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